सिक्का और सीढ़ी
"सिक्का और सीढ़ी 💰🧗"
एक शांत गाँव में दो दोस्त रहते थे — विक्रम और समीर।
दोनों बचपन के साथी थे, लेकिन एक बात में बिल्कुल अलग:
समीर किस्मत को मानता था 🍀
विक्रम मेहनत में विश्वास रखता था 💪
एक दिन गाँव में ऐलान हुआ —
गाँव की सबसे ऊँची पहाड़ी पर एक खज़ाना रखा जाएगा।
जो सबसे पहले पहुँचेगा, वही विजेता बनेगा।
समीर हँस कर बोला,
“मेरी तो किस्मत ही अच्छी है। मैं तो जीत ही जाऊँगा।”
विक्रम चुपचाप अगले दिन से तैयारी में लग गया —
दौड़, चढ़ाई, संतुलन, योजना।
दिन-रात एक कर दिए। 🌙🌞
📅 एक महीने बाद, मुकाबले का दिन आया।
पूरा गाँव इकट्ठा हुआ।
समीर चमचमाते जूते पहनकर आया और मंदिर में पूजा करवाई।
विक्रम ने पुराने फटे जूते पहने और कलाई पर अपनी माँ का बाँधा हुआ लाल धागा बाँधा।
🏁 दौड़ शुरू हुई।
समीर ने तेज़ शुरुआत की, लेकिन आधे रास्ते में साँसे फूल गईं।
उसने सोचा —
“कोई बात नहीं, मेरी किस्मत मेरा साथ देगी।”
विक्रम धीरे-धीरे चढ़ता रहा।
हर कदम मज़बूत, हर साँस नियंत्रण में। 🧗
समीर दो बार फिसला, एक बार घुटना भी छिल गया।
थक हारकर बैठ गया और ऊपर देखता रहा।
उधर विक्रम बिना बोले, बिना रुके, सीढ़ी दर सीढ़ी आगे बढ़ता रहा।
न नज़रे इधर-उधर कीं, न मन डगमगाया।
आख़िरकार, विक्रम चोटी पर पहुँच गया।
ना बैंड, ना बाजा, बस ख़ामोशी… और जीत। 🏆
खज़ाने का बक्सा खोला —
अंदर एक चिट्ठी रखी थी:
“तुम्हारे लिए जो इस मुकाम पर पसीने से पहुँचा,
याद रखो: किस्मत दरवाज़ा खोल सकती है…
पर अंदर ले जाने की ताक़त सिर्फ मेहनत देती है।”
कुछ देर बाद समीर लंगड़ाता हुआ ऊपर पहुँचा।
मुस्कुराया और कहा,
“तू तो हमेशा किस्मत वाला रहा यार…”
विक्रम ने हल्के से जवाब दिया —
“किस्मत वाला नहीं था।
मैं किस्मत का इंतज़ार नहीं करता — मैं उसे पकड़ने चढ़ता हूँ।”
✅ कहानी से सीख:
किस्मत मौका देती है,
लेकिन मेहनत उसे हक़ीक़त में बदलती है।
तारे नहीं, तुम्हारा पसीना तुम्हारा भाग्य तय करता है।
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